महान व्यक्तित्व >> राजा हर्षवर्धन राजा हर्षवर्धनएम. आई. राजस्वी
|
1 पाठकों को प्रिय 445 पाठक हैं |
आर्यावर्त का अंतिम हिन्दू सम्राट...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हर्षवर्धन एक सफल राजा था। उसने लगभग आधी शताब्दि तक अर्थात् 605 ईस्वी से
लेकर 647 ईस्वी तक अपने राज्य का विस्तार किया। इस अवधि में जिस साम्राज्य
को इसने स्थापित किया, उसकी समानता सम्राट् अशोक के साम्राज्य से की जा
सकती है। हर्षवर्धन ने ‘रत्नावली’,
‘प्रियदर्शिका’ और ‘नागरानंद’
नामक नाटिकाओं की
भी रचना की। हर्ष की रचना धर्मिता का वर्णन करते हुए महाकवि बाण ने लिखा
है-उनके कवित्त का वर्णन करने में वाणी असमर्थ है।
राजा हर्षवर्धन
ईसा की छठी शताब्दी में उत्तर भारत में एक शक्तिशाली राज्य था, जिसका नाम
था थानेश्वर ! थानेश्वर में राजा प्रभाकरवर्धन राज करते थे। वे बड़े वीर,
पराक्रमी और योग्य शासक थे। थानेश्वर नाम का यह राज्य जो आज भी अंबाला और
दिल्ली के बीच कुरुक्षेत्र के पास थानेसर नामक स्थान के रूप में स्थित है,
यद्यपि छोटा-सा ही था, तथापि यह राज्य अत्यंत सुखी, संपन्न और शक्तिशाली
था। राजा प्रभाकरवर्धन ने महाराज के स्थान पर महाराजाधिराज और परम भट्टारक
की उपाधियां धारण की थीं।
राजा प्रभाकरवर्धन की रानी का नाम यशोमती था। रानी यशोमती के गर्भ से जून 590 में एक परम तेजस्वी बालक ने जन्म लिया। यही बालक आगे चलकर भारत के इतिहास में राजा हर्षवर्धन के नाम से विख्यात हुआ। हर्षवर्धन का राज्यवर्धन नाम का एक भाई भी था। राज्यवर्धन हर्षवर्धन से चार वर्ष बड़ा था। हर्षवर्धन की बहन राज्यश्री उससे लगभग डेढ़ वर्ष छोटी थी। इन तीनों बहन-भाइयों में अगाध प्रेम था।
राजकीय सुख-संपन्नता का भोग करते हुए तीनों बालक पलने-बढ़ने लगे। उनकी शिक्षा-दीक्षा का समुचित प्रबंध कर दिया गया था। राजकुमार राज्यवर्धन और हर्षवर्धन देश-धर्म की शिक्षा पाने के साथ-साथ ही अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा में भी पारंगत हो गए थे, जब कि राजकुमारी राज्यश्री धर्म-कर्म और नीति-ज्ञान की शिक्षा में प्रवीण हो गई थी।
उस समय जन-सामान्य में ही नहीं, बल्कि राजकुलों में भी कन्याओं का विवाह बारह पंद्रह वर्ष की आयु में ही कर दिया जाना श्रेष्ठ समझा जाता था। जब राज्यश्री तेरह वर्ष की भी न हुई थी। कि राजा प्रभाकरवर्धन और रानी यशोमती को उसके विवाह की चिंता सताने लगी। शीघ्र ही अच्छे राजकुल और राजपुत्र की खोज की जाने लगी। खोज का सार्थक परिणाम निकला।
कन्नौज में मौखरि वंश के राजा अवंति वर्मा शासन करते थे। उनका वंश क्षत्रिय कुलों में श्रेष्ठ समझा जाता था। इन्हीं राजा अवंति वर्मा के ज्येष्ठ पुत्र का नाम गृहवर्मन था। राजा प्रभाकरवर्धन को युवराज गृहवर्मन और उनका वंश अपनी पुत्री राज्यश्री के योग्य लगा। उचित अवसर और राजकीय रीति-नीति से तब राजा प्रभाकरवर्धन ने अपनी प्रिय पुत्री का विवाह गृहवर्मन के साथ कर दिया।
राजा प्रभाकरवर्धन अपनी पुत्री का विवाह कर बड़े सुख और संतोष का अनुभव कर रहे थे। उनके दोनों पुत्र राज्यवर्धन और हर्षवर्धन युवा हो चुके थे। वे बड़े वीर और साहसी थे। राज्य भर में कहीं किसी प्रकार का कोई उपद्रव न था। इस प्रकार की सुख-शांति में राजा प्रभाकरवर्धन संतुष्ट और प्रसन्न थे।
राजा प्रभाकरवर्धन छठी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मालवों, गुर्जरों और हूणों को पराजित कर चुके थे, किंतु राज्य की उत्तर-पश्चिम सीमा पर प्रायः हूणों के छुट-पुट उपद्रव होते रहते थे। कुछ विचारकर उन्होंने अपने सेवक को पुकारा, ‘‘अनुचर।’’
‘‘आज्ञा कीजिए महाराज !’’ सेवक नतमस्तक हो हाथ जोड़कर बोला।
‘‘राजकुमार राज्यवर्धन को हमारे सम्मुख उपस्थित होने की आज्ञा दो।’’
‘‘जो आज्ञा महाराज !’’ सेवक बोला, ‘‘मैं यह आदेश तुरंत राजकुमार तक पहुंचा देता हूं।’’
सेवक के जाने के बाद महाराज प्रभाकरवर्धन विचारमग्न हो गए। उनके जीवन का अधिकांश भाग अपने शत्रुओं के संघर्ष करते हुए बीता था, किंतु अब उन्हें ऐसा लगने लगा था कि वृद्धावस्था के कारण अब उनमें संघर्ष की पहले वाली क्षमता नहीं रही। रही-सही क्षमता रुग्णावस्था ने समाप्त कर दी थी। अब भी रुग्णावस्था में वे शय्या पर पड़े हुए थे।
अभी महाराज प्रभाकरवर्धन अपनी स्थिति पर विचार कर ही रहे थे कि सेवक के साथ राजकुमार राज्यवर्धन ने कक्ष में प्रवेश किया। आते ही महाराज ने राजकुमार के चरण स्पर्श करके अभिवादन किया और उनके निकट शय्या पर ही बैठ गया।
‘‘पिता श्री !’’ अपने पिता के मुखमंडल पर दृष्टि जमाते हुए राजकुमार राज्यवर्धन बोला, ‘‘आपने मुझे याद किया था।’’
‘‘हाँ पुत्र !’’ महाराज क्षीण स्वर में बोले।
‘‘आज्ञा दीजिए पिताश्री।’’
‘‘पुत्र! हमारे राज्य की उत्तर-पश्चिम सीमा हूणों के आक्रमण से जर्जर हो रही है। प्रजा में भय की भावना फैलने लगी है। प्रजा शायद यह सोचने लगी है कि प्रभाकरवर्धन की भुजाएं अब बलहीन हो गई हैं। अब उनमें अपनी प्रजा की रक्षा करने की क्षमता नहीं रही।’’
‘‘पिताश्री ! आप यह किस प्रकार की बात करने लगे ?’’ राज्यवर्धन अपने पिता को सांत्वना देते हुए बोला, ‘‘कौन कहता है कि आपकी भुजाएं बलहीन हो गई हैं। पिताश्री आपकी भुजा मैं हूं, आपकी भुजा भ्राता हर्ष है। आपकी भुजाएं कल भी शक्तिसंपन्न थीं और आज भी शक्तिसंपन्न हैं। आप अपनी इन भुजाओं को आदेश देकर तो देखिए।’’
‘‘पुत्र ! यह बात हम तो अच्छी तरह से जानते हैं कि तुम जैसी हमारी भुजाएं बलहीन हो ही नहीं सकतीं, परंतु प्रजा को कौन समझाए पुत्र !’’
‘‘पिताश्री ! आप चिंता क्यों करते हैं ?’’ राज्यवर्धन कुछ तेज स्वर में बोला, ‘‘प्रजा को मैं समझाऊँगा। मैं...आपका पुत्र ! आपकी भुजा राज्यवर्धन !!’’
‘‘मगर कैसे पुत्र ?’’
‘‘अपने संपूर्ण राज्य के विद्रोहियों का सफाया करके और सीमा प्रांत से हूणों को कठोरतम दंड देकर !’’
‘‘तो पुत्र ! यह कार्य जितना शीघ्र हो जाए, अच्छा है।’’
‘‘यह कार्य शीघ्र ही होगा पिताश्री ! आप आज्ञा दीजिए।’’
‘‘मेरी ओर से आज्ञा है पुत्र !’’ राजा प्रभाकरवर्धन ने अपने पुत्र राज्यवर्धन के दमकते मुख की ओर देखते हुए कहा, ‘‘हूँणों का नाश करके प्रजा में सुख-शांति की स्थापना करो।’’
‘‘ठीक है पिताश्री ! मैं अभियान की ओर प्रस्थान की तैयारी करता हूं।’’ कहकर अपने पिता के चरणों में मस्तक नवाकर राजकुमार राज्यवर्धन उस कक्ष से निकल गया।
जब हर्षवर्धन को इस बात का पता चला कि उसका बड़ा भाई राज्यवर्धन उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत में हूणों का दमन करने के लिए जा रहा है तो उसका मन बड़ा अशांत हुआ। उसने स्वयं भी राज्यवर्धन के साथ युद्ध में जाने का निश्चय किया। यह निश्चय करके वह अपने भाई राज्यवर्धन के पास जा पहुंचा, जो युद्ध की ओर प्रस्थान करने की तैयारियों में लगा हुआ था।
‘‘भ्राताश्री !’ आते ही हर्ष अपने भाई राज्यवर्धन से कुछ तेज स्वर में बोला, ‘‘आप युद्ध में जाने की तैयारी कर रहे हैं ?’’
‘‘हां हर्ष ! हूणों के अत्याचारों से त्रस्त होकर प्रजा में अशांति फैलने लगी है।’’ राज्यवर्धन बोला, ‘‘इन अत्याचारी आक्रांताओं को शांति का पाठ पढ़ाना ही पड़ेगा।’’
‘‘कैसे भ्राताश्री ?’’
‘‘ये अशांत आक्रांता जिह्वा की नोक से शांति की शिक्षा ग्रहण नहीं करते हर्ष ! तलवार की धार और बाणों की तीव्र नोक से ही ये शांत हो पाते हैं। ऐसा ही कुछ मैं भी करने जा रहा हूं।’’
‘‘भ्राता श्री ! हूणों को उनकी नीचता का मजा चखाने के लिए मैं भी आपके साथ युद्ध-क्षेत्र में जाऊंगा।’’
राजा प्रभाकरवर्धन की रानी का नाम यशोमती था। रानी यशोमती के गर्भ से जून 590 में एक परम तेजस्वी बालक ने जन्म लिया। यही बालक आगे चलकर भारत के इतिहास में राजा हर्षवर्धन के नाम से विख्यात हुआ। हर्षवर्धन का राज्यवर्धन नाम का एक भाई भी था। राज्यवर्धन हर्षवर्धन से चार वर्ष बड़ा था। हर्षवर्धन की बहन राज्यश्री उससे लगभग डेढ़ वर्ष छोटी थी। इन तीनों बहन-भाइयों में अगाध प्रेम था।
राजकीय सुख-संपन्नता का भोग करते हुए तीनों बालक पलने-बढ़ने लगे। उनकी शिक्षा-दीक्षा का समुचित प्रबंध कर दिया गया था। राजकुमार राज्यवर्धन और हर्षवर्धन देश-धर्म की शिक्षा पाने के साथ-साथ ही अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा में भी पारंगत हो गए थे, जब कि राजकुमारी राज्यश्री धर्म-कर्म और नीति-ज्ञान की शिक्षा में प्रवीण हो गई थी।
उस समय जन-सामान्य में ही नहीं, बल्कि राजकुलों में भी कन्याओं का विवाह बारह पंद्रह वर्ष की आयु में ही कर दिया जाना श्रेष्ठ समझा जाता था। जब राज्यश्री तेरह वर्ष की भी न हुई थी। कि राजा प्रभाकरवर्धन और रानी यशोमती को उसके विवाह की चिंता सताने लगी। शीघ्र ही अच्छे राजकुल और राजपुत्र की खोज की जाने लगी। खोज का सार्थक परिणाम निकला।
कन्नौज में मौखरि वंश के राजा अवंति वर्मा शासन करते थे। उनका वंश क्षत्रिय कुलों में श्रेष्ठ समझा जाता था। इन्हीं राजा अवंति वर्मा के ज्येष्ठ पुत्र का नाम गृहवर्मन था। राजा प्रभाकरवर्धन को युवराज गृहवर्मन और उनका वंश अपनी पुत्री राज्यश्री के योग्य लगा। उचित अवसर और राजकीय रीति-नीति से तब राजा प्रभाकरवर्धन ने अपनी प्रिय पुत्री का विवाह गृहवर्मन के साथ कर दिया।
राजा प्रभाकरवर्धन अपनी पुत्री का विवाह कर बड़े सुख और संतोष का अनुभव कर रहे थे। उनके दोनों पुत्र राज्यवर्धन और हर्षवर्धन युवा हो चुके थे। वे बड़े वीर और साहसी थे। राज्य भर में कहीं किसी प्रकार का कोई उपद्रव न था। इस प्रकार की सुख-शांति में राजा प्रभाकरवर्धन संतुष्ट और प्रसन्न थे।
राजा प्रभाकरवर्धन छठी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मालवों, गुर्जरों और हूणों को पराजित कर चुके थे, किंतु राज्य की उत्तर-पश्चिम सीमा पर प्रायः हूणों के छुट-पुट उपद्रव होते रहते थे। कुछ विचारकर उन्होंने अपने सेवक को पुकारा, ‘‘अनुचर।’’
‘‘आज्ञा कीजिए महाराज !’’ सेवक नतमस्तक हो हाथ जोड़कर बोला।
‘‘राजकुमार राज्यवर्धन को हमारे सम्मुख उपस्थित होने की आज्ञा दो।’’
‘‘जो आज्ञा महाराज !’’ सेवक बोला, ‘‘मैं यह आदेश तुरंत राजकुमार तक पहुंचा देता हूं।’’
सेवक के जाने के बाद महाराज प्रभाकरवर्धन विचारमग्न हो गए। उनके जीवन का अधिकांश भाग अपने शत्रुओं के संघर्ष करते हुए बीता था, किंतु अब उन्हें ऐसा लगने लगा था कि वृद्धावस्था के कारण अब उनमें संघर्ष की पहले वाली क्षमता नहीं रही। रही-सही क्षमता रुग्णावस्था ने समाप्त कर दी थी। अब भी रुग्णावस्था में वे शय्या पर पड़े हुए थे।
अभी महाराज प्रभाकरवर्धन अपनी स्थिति पर विचार कर ही रहे थे कि सेवक के साथ राजकुमार राज्यवर्धन ने कक्ष में प्रवेश किया। आते ही महाराज ने राजकुमार के चरण स्पर्श करके अभिवादन किया और उनके निकट शय्या पर ही बैठ गया।
‘‘पिता श्री !’’ अपने पिता के मुखमंडल पर दृष्टि जमाते हुए राजकुमार राज्यवर्धन बोला, ‘‘आपने मुझे याद किया था।’’
‘‘हाँ पुत्र !’’ महाराज क्षीण स्वर में बोले।
‘‘आज्ञा दीजिए पिताश्री।’’
‘‘पुत्र! हमारे राज्य की उत्तर-पश्चिम सीमा हूणों के आक्रमण से जर्जर हो रही है। प्रजा में भय की भावना फैलने लगी है। प्रजा शायद यह सोचने लगी है कि प्रभाकरवर्धन की भुजाएं अब बलहीन हो गई हैं। अब उनमें अपनी प्रजा की रक्षा करने की क्षमता नहीं रही।’’
‘‘पिताश्री ! आप यह किस प्रकार की बात करने लगे ?’’ राज्यवर्धन अपने पिता को सांत्वना देते हुए बोला, ‘‘कौन कहता है कि आपकी भुजाएं बलहीन हो गई हैं। पिताश्री आपकी भुजा मैं हूं, आपकी भुजा भ्राता हर्ष है। आपकी भुजाएं कल भी शक्तिसंपन्न थीं और आज भी शक्तिसंपन्न हैं। आप अपनी इन भुजाओं को आदेश देकर तो देखिए।’’
‘‘पुत्र ! यह बात हम तो अच्छी तरह से जानते हैं कि तुम जैसी हमारी भुजाएं बलहीन हो ही नहीं सकतीं, परंतु प्रजा को कौन समझाए पुत्र !’’
‘‘पिताश्री ! आप चिंता क्यों करते हैं ?’’ राज्यवर्धन कुछ तेज स्वर में बोला, ‘‘प्रजा को मैं समझाऊँगा। मैं...आपका पुत्र ! आपकी भुजा राज्यवर्धन !!’’
‘‘मगर कैसे पुत्र ?’’
‘‘अपने संपूर्ण राज्य के विद्रोहियों का सफाया करके और सीमा प्रांत से हूणों को कठोरतम दंड देकर !’’
‘‘तो पुत्र ! यह कार्य जितना शीघ्र हो जाए, अच्छा है।’’
‘‘यह कार्य शीघ्र ही होगा पिताश्री ! आप आज्ञा दीजिए।’’
‘‘मेरी ओर से आज्ञा है पुत्र !’’ राजा प्रभाकरवर्धन ने अपने पुत्र राज्यवर्धन के दमकते मुख की ओर देखते हुए कहा, ‘‘हूँणों का नाश करके प्रजा में सुख-शांति की स्थापना करो।’’
‘‘ठीक है पिताश्री ! मैं अभियान की ओर प्रस्थान की तैयारी करता हूं।’’ कहकर अपने पिता के चरणों में मस्तक नवाकर राजकुमार राज्यवर्धन उस कक्ष से निकल गया।
जब हर्षवर्धन को इस बात का पता चला कि उसका बड़ा भाई राज्यवर्धन उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत में हूणों का दमन करने के लिए जा रहा है तो उसका मन बड़ा अशांत हुआ। उसने स्वयं भी राज्यवर्धन के साथ युद्ध में जाने का निश्चय किया। यह निश्चय करके वह अपने भाई राज्यवर्धन के पास जा पहुंचा, जो युद्ध की ओर प्रस्थान करने की तैयारियों में लगा हुआ था।
‘‘भ्राताश्री !’ आते ही हर्ष अपने भाई राज्यवर्धन से कुछ तेज स्वर में बोला, ‘‘आप युद्ध में जाने की तैयारी कर रहे हैं ?’’
‘‘हां हर्ष ! हूणों के अत्याचारों से त्रस्त होकर प्रजा में अशांति फैलने लगी है।’’ राज्यवर्धन बोला, ‘‘इन अत्याचारी आक्रांताओं को शांति का पाठ पढ़ाना ही पड़ेगा।’’
‘‘कैसे भ्राताश्री ?’’
‘‘ये अशांत आक्रांता जिह्वा की नोक से शांति की शिक्षा ग्रहण नहीं करते हर्ष ! तलवार की धार और बाणों की तीव्र नोक से ही ये शांत हो पाते हैं। ऐसा ही कुछ मैं भी करने जा रहा हूं।’’
‘‘भ्राता श्री ! हूणों को उनकी नीचता का मजा चखाने के लिए मैं भी आपके साथ युद्ध-क्षेत्र में जाऊंगा।’’
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book